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उ॒प॒ह्व॒रेषु॒ यदचि॑ध्वं य॒यिं वय॑इव मरुतः॒ केन॑ चित्प॒था। श्चोत॑न्ति॒ कोशा॒ उप॑ वो॒ रथे॒ष्वा घृ॒तमु॑क्षता॒ मधु॑वर्ण॒मर्च॑ते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

upahvareṣu yad acidhvaṁ yayiṁ vaya iva marutaḥ kena cit pathā | ścotanti kośā upa vo ratheṣv ā ghṛtam ukṣatā madhuvarṇam arcate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒प॒ऽह्व॒रेषु॒। यत्। अचि॑ध्वम्। य॒यिम्। वयः॑ऽइव। म॒रु॒तः॒। केन॑। चि॒त्। प॒था। श्चोत॑न्ति। कोशाः॑। उप॑। वः॒। रथे॑षु। आ। घृ॒तम्। उ॒क्ष॒त॒। मधु॑ऽवर्ण॑म्। अर्च॑ते ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:87» मन्त्र:2 | अष्टक:1» अध्याय:6» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:14» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

सभाध्यक्ष के कामवाले मनुष्य क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) सभा आदि कामों में नियत किये हुए मनुष्यो ! तुम (उपह्वरेषु) प्राप्त हुए टेढ़े-सूधे भूमि आकाशादि मार्गों में (रथेषु) विमान आदि रथों पर बैठ (वयइव) पक्षियों के समान (केनचित्) किसी (पथा) मार्ग से (यत्) जिस (ययिम्) प्राप्त होने योग्य विजय को (अचिध्वम्) सम्पादन करो, जाओ-आओ उसको (अर्चते) जिसका सत्कार करते और सभा आदि कामों के अधीश जिसको प्यारे हैं, उसके लिये देओ, जो (वः) तुम्हारे रथ (कोशाः) मेघों के समान आकाश में (श्चोतन्ति) चलते हैं, उनमें (मधुवर्णम्) मधुर और निर्मल (घृतम्) जल को (उप+आ+उक्षत) अच्छे प्रकार उपसिक्त करो अर्थात् उन रथों की आग और पवन के कलघरों के समीप अच्छे प्रकार छिड़को ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि विमान आदि रथ रचकर उनमें आग, पवन और जल के घरों को बनाकर, उनमें आग, पवन, जल धर कर कलों से उनको चलाकर उनकी भाप रोक रथों को ऊपर ले जायें, जैसे कि पखेरू वा मेघ जाते हैं, वैसे आकाश मार्ग से अभीष्ट स्थान को जा-आकर व्यवहार से धन और युद्ध सर्वथा जीत वा राज्यधन को प्राप्त होकर उन धन आदि पदार्थों से परोपकार कर निरभिमानी होकर सब प्रकार के आनन्द पावें और उन आनन्दों को सबके लिये पहुँचावें ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

सभाध्यक्षस्य भृत्यादयः किं कुर्युरित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे मरुतः सभाध्यक्षादयो ! यूयमुपह्वरेषु रथेषु स्थित्वा वय इव केनचित्पथा यद्यं ययिमचिध्वं संचिनुत तमर्चते दत्त ये वो युष्माकं रथाः कोशा इवाकाशे श्चोतन्ति तेषु मधुवर्णं घृतमुपोक्षत। अग्निवायुकलागृहसमीपे सिञ्चत ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उपह्वरेषु) उपस्थितेषु कुटिलेषु मार्गेषु (यत्) यम् (अचिध्वम्) संचिनुत (ययिम्) प्राप्तव्यं विजयम् (वयइव) यथा पक्षिणस्तथा (मरुतः) सभाद्यध्यक्षादयो मनुष्याः (केन) (चित्) अपि (पथा) मार्गेण (श्चोतन्ति) क्षरन्तु संचलन्तु (कोशाः) यथा मेघाः। कोश इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (उप) (वः) युष्माकम् (रथेषु) विमानादियानेषु (आ) समन्तात् (घृतम्) उदकम् (उक्षत) सिञ्चत। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (मधुवर्णम्) यन्मधुरं च वर्णोपेतं च तत् (अर्चते) सत्कर्त्रे सभाद्यध्यक्षप्रियाय ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्विमानादियानानि रचयित्वा तत्राग्निवायुजलस्थानानि निर्माय तत्र तत्र तानि स्थापयित्वा कलाभिः संचाल्य वाष्पादीनि संनिरुद्ध्यैतान्युपरि नीत्वा पक्षिवन्मेघवच्चाकाशमार्गेण यथेष्टं स्थानं गत्वागत्य व्यवहारेण युद्धेन विजयं राज्यधनं वा प्राप्यैतैः परोपकारं कृत्वा निरभिमानिभिर्भूत्वा सर्व आनन्दाः प्राप्तव्याः, एते सर्वेभ्यः प्रापयितव्याश्च ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी विमान इत्यादी रथ तयार करून त्यात अग्नी, पवन व जल यांची स्थाने निर्माण करून कलायुक्त यंत्राने त्यांची वाफ रोखावी व रथ वर घेऊन जावे जसे पक्षी किंवा मेघ वर जातात तसे आकाश मार्गाने अभीष्ट स्थानी जाणे येणे करून व्यवहाराद्वारे धन प्राप्त करावे व युद्ध संपूर्णपणे जिंकावे किंवा राज्यासाठी धन प्राप्त करावे व त्या धन इत्यादी पदार्थांनी परोपकार करावा. निरभिमानी बनून सर्व प्रकारे आनंद प्राप्त करावा व आनंद सर्वांना उपलब्ध करून द्यावा. ॥ २ ॥